उत्तराखंड, अपनी प्राकृतिक सुंदरता और धार्मिक विरासत के लिए जाना जाता है. यहां हर स्थान पर एक अद्भुत आध्यात्मिक ऊर्जा का एहसास होता है. गढ़वाल और कुमाऊं के अलावा, जौनसार-बावर क्षेत्र भी प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है. इसी कड़ी में देहरादून जिले के कटापत्थर में स्थित मां भद्रकाली का मंदिर अपनी ऐतिहासिक और धार्मिक मान्यताओं के कारण बेहद खास है.
महाभारत काल से जुड़ा है मंदिर का इतिहास
मंदिर का इतिहास महाभारत काल से जुड़ा है. साधक संघ के संस्थापक महेश स्वरूप ब्रह्मचारी बताते हैं कि मान्यताओं के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांचों पांडव यहां आए और मां भद्रकाली की पूजा-अर्चना की. यह क्षेत्र उस समय विराटनगर का हिस्सा था और राजा विराट की कुलदेवी मां भद्रकाली को माना जाता था. 11वीं शताब्दी में दिल्ली के राजा अनंगपाल ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया. उनका शासन दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के कई हिस्सों तक फैला था.
मंदिर में प्राचीन सुरंग और शिवलिंगों का निर्माण
साधक संघ के संस्थापक महेशस्वरूप ब्रह्मचारी के मुताबिक मंदिर के नीचे एक सुरंग थी, जो जौनसार बावर के प्रसिद्ध लाखामंडल तक जाती थी. मान्यता है कि पांडव इसी सुरंग के माध्यम से लाखामंडल पहुंचे, जहां उन्होंने लाखों शिवलिंगों का निर्माण किया. यहीं से पांडव केदारनाथ के लिए रवाना हुए. हालांकि, आज यह सुरंग बंद है, लेकिन इसके ऐतिहासिक महत्व को भुलाया नहीं जा सकता. जिस मंदिर के पास उत्तराभिमुख नदी का जल होगा, वह स्थान मूलत: सिद्ध ही माना जाता है.
गर्भगृह में प्राचीन पिंडी और देवी-देवताओं की मूर्तियां
मंदिर के गर्भगृह में आज भी 21 फीट ऊंची प्राचीन पिंडी स्थापित है. वर्षों पहले खुदाई के दौरान यहां भगवान गणेश, हनुमान, नाग, शिव-शक्ति समेत कई देवी-देवताओं की मूर्तियां प्राप्त हुई थीं. महेशस्वरूप ब्रह्मचारी की मानें तो कटापत्थर प्राचीनकाल में चारधाम यात्रा का पहला पड़ाव हुआ करता था. आज भी श्रद्धालु जब यमुनोत्री धाम के लिए जाते हैं, तो मां भद्रकाली के दर्शन करना नहीं भूलते. यह मंदिर 118 गांवों की कुलदेवी के रूप में पूजित है.
मंदिर का आधुनिक स्वरूप, परंपरा आज भी बरकरार
वर्तमान में मंदिर में आधुनिकता की झलक दिखती है, लेकिन गर्भगृह में मां भद्रकाली की प्राचीनता आज भी बरकरार है. श्रद्धालुओं के लिए यह स्थान न केवल एक धार्मिक केंद्र है, बल्कि इतिहास और परंपरा से जुड़ने का एक माध्यम भी है.